कनक टॉकीज के सिनेमाई सफर का दुखद अंत

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सिर्फ लेंडमार्क बन रहा जाएगा कनक सिनेमा

लेखक की कलम से*****

सुभाष कुमार
देहरादून । *नाम गुम जाएगा चेहरा ये बदल जायेगा। मेरी आवाज ही पहचान है—- गर याद रहे
गुलजार साहब के नगमे की तरह इस सिनेमा हॉल की दास्तान भी कुछ ऐसी ही है।
सदियों से मनोरंजन के रूप में लोगो के दिलो में बसा कालजयी सिनेमा हॉल के बेहतरीन दौर में अपनी उपस्थिति दर्ज करा चुका कनक सिनेमा टॉकीज अब लोगो के लिए सिर्फ लेंड मार्ग बन के रह जायेगा। लम्बे विवादों में उलझे कनक टाकीज के सिनेमाई सफर का दुखद अंत अब होने जा रहा है। इसके टूटने की प्रक्रिया शरू हो चुकी है। बस कुछ ही दिनों में देहरादून के नक्शे से इसका वास्तविक स्वरूप भी खत्म हो जाएगा । पहले कृष्ण पैलेस व फिर प्रभात और अब कनक सिनेमा टॉकीज की बारी है । देहरादून शहर में एक के बाद एक सिनेमाहॉल का टूटा जाना वास्तव में सिनेमा प्रेमियो के लिए दुखद विषय है। परंतु कोई कर भी क्या सकता है। इस सिनेमा हॉल की दास्तान भी उस खूबसुरत नौजवान की तरह है जिनके जलवे देखकर लोग उनके मुरीद हो जाते थे परन्तु बुढ़ापे के वक्त उसका साथ छोड़ कर चले जाते है । ऐसा जान पड़ता है कि बेबसी लाचारी ने इसका सब कुछ छीन लिया हो।
गुजरे दौर को याद करें तो मुझे याद है वो दौर जब 1977 में पहली बार ग्रेट शो मेंन कहे जाने वाले महान निर्देशक सुभाष घई की पहली डाइनामाइट हिट व शत्रुघ्न सिन्हा अभिनीत फिल्म कालीचरण से इसका सिनेमाई सफर शुरू हुआ था। उसके बाद सुहाग (1979),खूनपसीना व राजपूत (1981), नसीब(1982) बेमिसाल (1982), सागर (1983), मर्द ( 1984) और ना जाने कितनी बड़े बजट की फिल्में रिलीज हुई। इस दौर की सभी फिल्मे सफ़ल साबित हुई।

ये दौर घोड़े तांगे रिक्शो का दौर था। लोगो के पास फुर्सत थी । जीने का एक मकसद था। वक्त दोस्त व रिश्तेदारों के बीच मनोरंजन व सिनेमा देखने में गुजरता था। उस वक्त लोगो का सिनेमा देखना शान की बात थी।कालजयी सिनेमा का ये दौर सही मायनों में रिश्तेदारों व मित्रो के बीच सेतु का कार्य करता था। परिवार के साथ सिनेमा देखने की चाह लोगो को कनक सिनेमा की और खींच लाती थी।

इसकी जवानी व बुढ़ापे का मै पक्षदर्शी हूँ। इसके बनने संवरने से लेकर बिगड़ने तक के दौर का वो नजारा अपनी आँखों से देखा हैं मैंने।
इसके टूटने के साथ उन लोगो के सपने भी टूट गए जिसके सहारे से लोगो का काम काज व रोजगार था ।
अब कनक टॉकीज को एस्टले हॉल के नाम के साथ सिर्फ लेण्डमार्ग के रूप में ही याद किया जाता रहेगा।

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