बॉम्बे टॉकीज : गुजरे दौर की अनोखी दास्तान….

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(सुभाष कुमार प्रेम बन्धु)

किसी की है फरियाद तो किसी के सपनों की ऊंची उड़ान……

देहरादून। बचपन जिस माहौल परिवेश में बीता वो एक ब्लेक एन्ड वाइट सिनेमा के जी रहे किरदार से कम चुनोतिपूर्ण न था। बचपन की सुनहरी यादों के साथ जिन्दगी के बेरुखेपन का स्वाद कुछ अपनों की मिठास कुछ गैरो की कड़वाहट ने जिंदगी के मायने सीखा दिए। सही मायनों में बचपन की वो यादे जब दस पैसे से बाइस्कोप देखा करते थे कई बार पैसे ना होने पर मन मार लिया करते थे। कुछ अधूरी ख्वाईशों को मन मे झुपा लिया करते थे। लोगों के किस्से कहानियां उनकी जुबानियो को में सुना करता था। ब्लैक एंड वाईट फिल्मों के उस दौर को जबसे मैने जाना

तब से मन में उन लम्हो को संजोकर किसी ख़ूबसूरत तस्वीर बनाने का मन बना लिया। अपनी भावनाओं के रंग भरना ख्वाईशें थी मेरी क्योंकि बचपन के अकेलेपन का जिसने मेरा साथ दिया। आज काफी प्रयास के बाद बॉम्बे टॉकीज के ऐतिहासिक दौर को कैनवास पर उतारकर उसकी तस्वीर को साकार करने का प्रयास किया है।

उम्मीद है आपको ये जरूर पसंद
आएगी…..
बॉम्बे टॉकीज वो जगह है जहाँ अशोक कुमार व दिलीप कुमार जैसे स्टार पैदा हुए। बॉम्बे टॉकीज वो जगह है जहाँ हिंदुस्तान की एक करोड़ रुपए कमाने वाली फ़िल्म बनी थी। बॉम्बे टाकीज वो जगह भी है जहाँ एक दिन उसमें ताला लग गया और वो बंद हो गयी।
बॉम्बे टॉकीज के बारे में आप जानेंगे तो आपको पता चलेगा कि बॉम्बे टॉकीज किसे के अरमानों की है दास्तान और किसी के सपनों की है ऊची उड़ान।
बॉम्बे टाकीज को पैदा करने वाली दो शख्सियतें थी एक थे हिमांशु राय और दूसरी शख्स थी देविका रानी। बॉम्बे टॉकीज का सफर 1934 से शुरू हुआ था।
बॉम्बे से कुछ दूरी पर एक जगह है मलाट जहाँ बॉम्बे टॉकीज को स्थापित किया गया था। आज मलाट बड़ा शहर है वहां उचीं-उचीं इमारतें बहुत ज्यादा ट्रैफिक देखने को मिलेंगा लेकिन 1934 में वहाँ कुछ नही था।
पहले वहाँ खाली जमीनें थी। जिन्हें हिमांशु राय व देविका रानी ने खरीदी और वहां बॉम्बे टाकीज बनाया।
बॉम्बे टाकीज बनाये जाने के पीछे देविका रानी व हिमांशु राय दोनों का ड्रीम्ज प्रोजेक्ट था क्योंकि दोनों का अधिकतर वक्त विदेशों में गुजरता था वही से दोनों ने फ़िल्म की बारीकियां व उनसे जुड़ी नई तकनीकी सीखी। फ़िल्म प्रोडक्शन की विस्तृत जानकारी के बाद दोनों ने यूरोपियन टेक्नीशियनों की मदद से बॉम्बे टाकीज को साकार किया। बॉम्बे टाकीज में फ़िल्म से जुड़ी वो तकनीकीयाँ थी जो उस जमाने में ना कभी देखी और ना कभी सुनी थी। फ़िल्म निर्माण से लेकर उसके रिलीज करने से पूर्व उसके प्रिव्यू के लिये एक अलग थियएटर तैयार किया था जहाँ से फ़िल्म की खामियों को दूर किया जा सके। बॉम्बे टाकीज में फ़िल्म निर्माण को लेकर एक पूरा कारपोरेट स्ट्रक्चर तैयार था। बॉम्बे टॉकीज को चलाने वाले कुछ खास लोग थे जिनमें ज्ञान मुखर्जी थे जो टेक्नीशियन के साथ सुपर कंट्रोलर थे इनके साथ रायबहादुर चुन्नी लाल प्रोडक्शन कंट्रोलर थे। बॉम्बे टॉकीज में सबसे खास शख्स शशाधर मुखर्जी थे बॉम्बे टॉकीज में जो भी फ़िल्म बनती थी उन फिल्मों के निर्माण में इनका पैसा लगता था। अशोक कुमार को भी बॉम्बे टाकीज में शशाधर मुखर्जी ही लेकर आये थे क्योंकि शशाधर मुखर्जी और कोई नही बल्कि अशोक कुमार के बहनोई थे।

बॉम्बे टॉकीज की सबसे खास बात ये थी कि इसमें काम करने वाले कर्मचारी से लेकर एक्टर, डायरेक्टर सभी की महीने की सैलरी निर्धारित थी। इसके साथ अनुबंध में ये भी तय था कि बॉम्बे टॉकीज से जुड़ा हर शक्स उसके नियम कायदों पर रहकर काम करेगा। बॉम्बे टॉकीज में अनुबंधित होकर अन्य किसी फिल्म मेकर के साथ काम करने की किसी को भी इजाज़त नही थी। चाहे वो एक्टर हो या प्रोड्यूसर सभी को नियमों का पालन करना था।
सन 1935 में बॉम्बे टॉकीज की पहली फ़िल्म रिलीज हुई “जवानी की हवा” जो कुछ खास कमाल नही कर पाई लेकिन 1936 में आई दो फिल्मों ने बॉम्बे टॉकीज को पूरे देश मे मशहूर कर दिया। ये फिल्में थी “जीवन नैय्या” और “अछूत कन्या” ये दोनों फिल्मों के नायक अशोक कुमार ही थे और नायिका थी देविका रानी ।
1940 में हिमांशु राय गुजर गए और उनके गुजरने के बाद देविका रानी बॉम्बे टॉकीज की मालकिन हो गयी। ऐसे में देविका रानी और शशाधर मुखर्जी के बीच स्टूडियो को चलाने व उसे कंट्रोल करने की जद्दोजहद शुरू हो गयी कुछ समय तक तो युही चलता रहा। इस बीच कुछ फिल्में बनी भी जिनमे कंगन, बंधन झूला जैसे फिल्में आई और चली गयी परन्तु खास कमाल नही कर पाई। लेकिन बॉम्बे टॉकीज की किस्मत तब चमकी जब 1945 में अशोक कुमार की फ़िल्म किस्मत रिलीज हुई ये फ़िल्म हिंन्दूस्तान की महान फ़िल्म बनी जिसने उस जमाने मे एक करोड़ की कमाई कर हिंन्दुस्तान की पहली सफल फ़िल्म साबित हुई। जिसकी कभी कल्पना नही की जा सकती थी। इतनी शोहरत कमाने के बाद आखिर में स्टूडियो को लेकर दोनों के बीच मतभेद शुरू होने लगे। एक तरफ देविका रानी दूसरी तरफ शशाधर मुखर्जी और उनके साले अशोक कुमार व उनकी टीम के साथी ज्ञान मुखर्जी तीनों ने अब मन बना लिया था की भविष्य में देविका रानी के साथ काम नही करेंगे।
ऐसे में तीनों ने देविका रानी का साथ छोड़कर राय बहादुर चुन्नी लाल के साथ मिलकर फिल्मिस्तान स्टूडियो के नाम से नई कम्पनी खोल दी। आपको याद दिला दे की राय बहादुर चुन्नी लाल मशहूर संगीतकार मदन मोहन के पिताजी थे।
बॉम्बे टॉकीज में अशोक कुमार के अलग होने के बाद अब देविका रानी को किसी नये हीरो की तलाश थी ऐसे में देविका रानी ने बॉम्बे टाकीज के लिए नया हीरो खोज निकाला जिसे देविका रानी ने मो.यूसुफ नाम हटाकर दिलीप कुमार नाम दिया। इस तरह मो.यूसुफ बन गए दिलीप कुमार।

बॉम्बे टॉकिंज के बैनर तले दिलीप कुमार की पहली फ़िल्म रिलीज हुई “ज्वार भाटा” परन्तु ये फ़िल्म कुछ खास कमाल नही कर पाई। फ़िल्म की असफलता से दुखी होकर देविका रानी ने बाम्बे टॉकीज को अलविदा कह दिया और किसी मशहूर रशियन पेंटर से शादी कर अलग एक दुनिया बसा ली।
अब बॉम्बे टॉकीज की हालत ऐसी हो गयी मानो जैसे बिन
मां -बाप का बच्चा ।
बॉम्बे टॉकीज से जुड़े कई कर्मचारी जो सड़क पर आ गए थे उन्होंने किसी तरह अशोक कुमार व शशाधर मुखर्जी से मिलकर बॉम्बे टॉकिंज को फिर से चलाने का अनुरोध किया। उनसे कहा कि आप हमारी मदद कीजिये। दादा मुनि के नाम से विख्यात अशोक कुमार को बॉम्बे टॉकीज के कर्मचारियों की तकलीफें देखी ना गयी। इसका एक कारण ये भी था कि उनकी भावनाएं जुड़ी थी उस जगह से जहाँ से उन्होंने अपना कैरियर शुरू किया था। आखिर में उन्होंने तय कर लिया कि चाहे कुछ भी हो बॉम्ब टॉकीज के लिए वे कुछ न कुछ जरूर करेंगे। इस बीच उन्होंने एक प्लान बनाया कि अगली फिल्म को वे प्रोड्यूस करेंगे और सन 1946 में एक फ़िल्म बनाई जिसका नाम था मिलन इस फ़िल्म में उस एक्टर को लिया जो उस समय अशोक कुमार साहब के चले जाने पर आर्टिस्ट के रूप में बॉम्बे टॉकीज आए थे मासिक वेतन पर। ये शख्स थे दिलीप कुमार जिनकी पहली फ़िल्म मिलन बहुत कामयाब भले ही ना थी लेकिन बॉम्बे टॉकीज फिर से पनपने लगा। इस फ़िल्म के बाद अशोक कुमार ने एक और फ़िल्म पर पैसा लगाया जो 1948 में रिलीज हुई इस फ़िल्म का नाम था जिद्दी। इस फ़िल्म के लीडिंग एक्टर थे देवआनंद। मिलन और जिद्दी दोनों फिल्में कुछ खास कमाल ना कर पाई। इसके बाद अशोक कुमार साहब ने एक और फ़िल्म पर पैसा लगाया। इस बार उन्होंने दिलीप कुमार व देव आनन्द जैसे न्यू कमर्स को न लेकर हिंदुस्तान के सबसे बड़े एक्टर को लिया खुद अशोक कुमार को और इनके साथ में थी मधुबाला जो इनकी हिरोइन थी इस नई फिल्म के साथ अशोक कुमार साहब ने एक ऐसे नए डायरेक्टर को लिया जिसने आज तक कोई फ़िल्म डायरेक्ट नही की लेकिन इस नौजवान शख्स के के भीतर की ऊर्जा को वे पहले ही जान चुके थे। इसकी लिखी हुई स्क्रिप्ट को जब अशोक कुमार ने पढ़ी तो उन्होंने तय कर लिया कि अपनी इस फ़िल्म को ये ही डायरेक्ट करेंगे। 1949 में बनी इस फ़िल्म का नाम था “महल” । इस फ़िल्म से जुड़ा गीत आएगा -आएगा आने वाला…
इतना मशहूर हुआ कि आज भी इसे सुनकर लोग खो जाते है। इस डायरेक्टर का नाम था कमाल अमरोही जिन्होंने बाद में जाकर फ़िल्म पाकीजा बनाई । अशोक कुमार की ये फ़िल्म महल एक कामयाब फ़िल्म साबित हुई।इसके बाद आशोक कुमार ने बाम्बे टॉकीज के बैनर तले बनने वाली कई फिल्मों पर पैसा लगाया जैसे 1950 में बनी फिल्म मशाल और 1952 में रिलीज तमाशा जिसमे अशोक कुमार के साथ देव आनन्द थे ये फ़िल्में भी बॉम्बे टॉकिज की डूबती नैय्या को बचा नही पाई। एक के बाद एक
फ्लॉप फिल्मों की झड़ी लगती गयी। बाम्बे टॉकीज की माली हालत निरन्तर बिगड़ने लगी। ये सब देखकर अशोक कुमार ने तय कर लिया कि अब बॉम्बे टॉकीज की फ़िल्म पर कोई पैसा नहीं लगाना है। आखिर में हताश होकर 1953 में बॉम्बे टॉकीज के मॉलिक तोला राम जालान को बॉम्बे टॉकीज के स्टूडियो को बंद करना पड़ा। बॉम्बे टॉकीज के बैनर तले जो फ़िल्म बन रही थी वो किसी तरह बड़ी मुश्किलों में जाकर पूरी हुई । इसके साथ ही 1954 में बॉम्बे टॉकीज के बैनर तले अशोक कुमार और देव आनन्द व मीना कुमारी के अभिनय से सजी फ़िल्म बादबाँ रिलीज हुई और इस तरह अपने शरुआत के 20 साल बाद बॉम्बे टाकीज फिर हमेशा के लिए बंद हो गया। आज बॉम्बे टॉकीज एक खण्डर है जिसे लोग मुंबई के मलाट शहर में देख सकते है।

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