संघर्षो की अधूरी दास्ताँ….
उत्तराखण्ड आन्दोलन के 27 वर्ष बाद भी शहीदों के सपने पूरे नही हो पाए। जिस सोच को लेकर राज्य की परिकल्पना की गई थी वो साकार नही हो पाई। सरकारे जितनी भी आई सभी ने राज्य की जनता को गुमराह किया है। नतीजन आज उत्तराखण्ड राज्य की दिशा व वो सोच बदल चुकी है। अस्तित्त्व को लेकर उत्तरारखण्ड की लड़ाई अभी तक जारी है।
शहादत के उन दिनों को याद करते है तो छलक पड़ते है आंसू। संघर्षो के वो दिन ..….
इन अधूरे सपने व सोच को लेकर जो विचार मन मे आये है उन्हें कविता के रूप में प्रस्तुत किया है।
संघर्षो की दास्ताँ बनाम सियासत…..
संघर्षो की है ये दास्ताँ पुरानी
आज की कोई नई बात नही।
जिस चमन के खातिर ताउम्र जूझते रहे
संघर्षो से, आज उस चमन के
फूलों को उठाने की भी इजाजत नही ।।
संघर्षों की है ये दास्ताँ पुरानी आज की कोई नई बात नही..।
अस्त्तिव की इस जंग में
जब पसीने के साथ बहाया था
खून का कतरा-कतरा ।
आज उन जज्बों का
कोई भी तलबगार नही ।।
कैसा अजब दस्तूर है
इस सियासत के तमाशाहइयों का ।
जो खुद तो कर रहे है मौज
पर जिन्होंने दी कुर्बानी आज
उनसे किसी का कोई सरोकार नही ।।
संघर्षो की है ये दास्ताँ पुरानी ….आज की
कोई नई बात नही ।।
सियासत भी क्या खूब है दोस्तो ,
संघर्षो का देकर वास्ता ,
कहते है हर ख्वाइश होगी पूरी।
पर मिली नही मंजूरी ।
आज उनकी जुबाँ का भी
कोई एतबार नहीं ।।
संघर्षो की है ये दास्ताँ पुरानी ….आज की
कोई नई बात नही।
सुभाष कुमार…प्रेम बंधु