पेंसिल किताबे छोड़कर आखिर भुट्टे बेचने को मजबूर है ये मासूम
क्या कभी राज्य सरकार इन मासूमों के उज्ज्वल भविष्य को कर पायेगी साकार
_जिसे बचपन के दिनों में हंसना खेलना था।_
_वो तो मजदूरी के दलदल में कूद पड़ा।_
_यह कोई मजाक का खेल नहीं है_
_भूखे पेट में जान नहीं है_
_करवाते हो मजदूरी दिनभर_
_क्या ये बच्चा इंसान नहीं है।__
_उनका बचपन कहां खो गया_
_भला ये बच्चा क्या जाने_
_जीवन तो गली नुकड़ में खो गया।_
_भला वो यादें क्या बनाएगा_
_इस मासूम का बचपन तो मजदूरी में ही खो गया।_
सुबह गेट खोल कर जब मैं बाहर घूमने निकला तो अकस्मात मेरी नजर भुट्टे बेच रहे उस नन्हे बालक पर पड़ी। मैंने चारों तरफ नजर दौड़ाई कि शायद कोई इस बालक के साथ होगा परन्तु जब उस बालक से पूछा तो मै उसकी बात सुनकर चोंक पड़ा। उसने बताया कि वो अकेला कई महीनों से ठेला लेकर फल सब्जियां बेचता था मगर आजकल सीजन में भुट्टे बेच रहा है।
मात्र 8-9 साल की उम्र के इस बालक की हिम्मत देखकर आश्चर्य तो हुआ मगर साथ मे दुःख भी हुआ कि जिन हाथों में पेंसिल होनी चाहिए थी आज वे ठेला लेकर भुट्टे बेचने पर मजबूर है।
बलबीर रोड के समीप रिस्पना से लगी मलिन बस्ती में रह रहे 8 वर्षीय गोविंद के पिता ध्याड़ी मजदूरी करते है घर मे छोटे भाई बहन है परिवार की आर्थिक स्थिति ठीक ना होने की वजह से उसे काम करके परिवार को सहयोग देना पड़ रहा है। थोड़ा बहुत पढ़ना भी चाहा तो कोरोना काल मे उसके लिये सब कुछ खत्म हो गया।
देहरादून में मलिन बस्तियों में रहने वाले ऐसे ना जाने कितने नौनिहाल अपना बचपन छोड़ कर ध्याड़ी मजदूरी कर रहे है।
सरकार के नुमाइंदे व जनप्रतिनिधि यूं तो कोरोना काल में मदद के नाम पर खाने पीने का सामान तो मुहैय्या करा देंगे परन्तु क्या कभी उन मासूमों के बारे में सोचा है कि शिक्षा के अभाव में इनका क्या भविष्य होगा। गरीब असहाय बच्चो के जीवन स्तर को बेहतर बनाने की योजनाएं तो महज कागजों में सिमट कर रह चुकी है। फिलहाल इन बच्चों के सुनहरे भविष्य को बेहतर बनाने के लिए सरकार की कोई भी योजना मिलों दूर तक कही दिखाई नही देती। कहने को हर साल सरकार मनाते है बाल दिवस।