सहमति, असहमति के बीच, अभिव्यक्ति की आजादी

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हिंदी भाषा साहित्य की दिशा में  बढ़ता कदम

देहरादून। देश की बड़ी अदालतों में आज भी अंग्रेजों की भाषा का ही वर्चस्व है।
हिंदी से न्याय आंदोलन के जनक न्यायविद चंद्रशेखर उपाध्याय लंबे अरसे से संविधान की धारा 348 में संशोधन करने और बड़ी अदालतों में हिंदी और अन्य भारतीयों भाषाओं में कामकाज और निर्णय की मांग कर रहे हैं। अगर हम भारतीयता का सम्मान करते हैं तो जनहित में इतना तो कर ही सकते हैं।

कानून कोई भी बुरा नहीं होता। हम उसका उपयोग करते हैं या दुरुपयोग,अहमियत इस बात की है। सत्ता में जो भी दल होता है,वह अपने हिसाब से अपने विरोधियों को राह पर लाने के लिए कानून का डंडा भांजता है। ईमानदारी से कोई भी दल नहीं चाहता कि इस तरह के कानून समाप्त कर दिए जाएं। कानून बदलना या हटाना उतना जरूरी नहीं है जितना यह जरूरी है कि लोग आत्मानुशासित हों। कानून के फंदे में फंसने  जैसा कोई काम न करें। अपने काम से काम रखें। दोष निकलना आसान होता है। सुधार कैसे हो, व्यवस्था ने बदलाव कैसे हो, विमर्श तो इस पर होना चाहिए। सर्वोच्च न्यायालय बदलाव चाहता है तो विचार बुरा नहीं है लेकिन अंग्रेजों के जमाने का बहुत कुछ है। क्या-क्या बदला जाए। प्याज का छिलका उतारते जाइए, अंत में मिलना शून्य ही है। शून्य से शून्य ही निकलेगा और बचेगा भी शून्य ही। इसलिए भी आवश्यक है कि भारतीय संविधान को भारतीय जीवन मूल्यों और परंपराओं के अनुरूप नए सिरे से बनाया जाए। सहमति, असहमति के बीच, अभिव्यक्ति की आजादी के बीच  वैयक्तिक सुविधा के संतुलन का स्तर क्या है? याचिकाकर्ता की मंशा और महत्वाकांक्षा का नीर-क्षीर विवेक भी होना चाहिए।बिना इसके हम मैकाले की उसी अवधारणा को पुष्ट करते रहेंगे कि भारतीयों के मामलों में फैसले तो आएंगे लेकिन उन्हें न्याय नहीं मिलेगा? क्या इस देश की न्यायपालिका, कार्यपालिका और व्यवस्थापिका मैकाले के कानूनों से इस देश को राहत दिलाने के बारे में भी कभी चिंतन-मनन करेगी।

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